फिर परिंदा चला
फिर परिंदा चला उड़ान पे है
तीर हर शख्स की कमान पे है
फ़स्ल की अब खुदा ही खैर करे
पासबाँ आजकल मचान पे है
तब बदलना नहीं ग़लत उसको
जब लगे रहनुमां थकान पे है
हैं निगाहें बुलन्दियों पे मेरी,
क्या हुआ पाँव गर ढलान पे है
धार शमशीर पर करो अपनी
ज़ुल्म का दौर फिर उठान पे है
शहर के घर में यूं तो सब कुछ है’
पर सुकूँ, गाँव के मकान पे है
बात “नीरज” तेरी सुनेंगे सभी
जब तलक चाशनी ज़बान पे है १९ सितंबर २०११
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