दिल का मेरे
दिल का मेरे ये भी इक फितूर है
मानना हरगिज़ नहीं तू दूर है
मीच कर के आँख फिर से देखिए
हो गया गर ख्वाब चकनाचूर है
बात में उसकी सदा रहता है सच
जो नहीं मालिक महज़ मजदूर है
आलम-ए-तनहाई का दोज़ख़ है क्या
पूछ उससे जो बहुत मशहूर है
धूल उसने झोंक दी है आँख में
जिसको समझे थे के इनका नूर है
ग़म खुशी में फ़र्क ही करते नहीं
क्या अजब ये अश्क का दस्तूर है
साथ तेरे गर वो चल पाया नहीं
सोचना नीरज बहुत मजबूर है
24 जुलाई 2007
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