कतए
खुदक़ुशी जब, ज़मीर करता है
हम तभी, बस्तियाँ जलाते है
कौन डरता, भला खुदा से अब
सब दिखावे को, सर झुकाते हैं
किसको निस्बत रही, ज़माने में
अब कहाँ दिल के, रिश्ते-नाते हैं
यार चलते हुए, जनाज़ों में
आज कल, चुटकुले सुनाते हैं।
घर के कमरे हैं और रसो है
तुमने दुनिया जहाँ समो है
रोते बच्चे-सी ये मुसीबत है
तेरे कंधे पे जा के सोई है
सीधे-साधे लोग थे जो गाँव के
अब ना जाने वो कहाँ पे खो गए
ऐसा लगता बर्गरों के दौर में
बाजरे की यार खिचड़ी हो गए
24 फरवरी 2007
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