जहाँ उम्मीद हो ना मरहम की
झूठ कहने की चाह की जाए
ज़िंदगी क्यों तबाह की जाए
दिल लगाया तो ये ज़रूरी है
चोट खाकर के वाह की जाए
वो अदाओं से मारते हैं मुझे
चाहते पर ना आह की जाए
जब खुदा है बसा तेरे दिल में
काहे काबे की राह की जाए
जहाँ उम्मीद हो ना मरहम की
क्यों वहाँ पर कराह की जाए
सामने जब हो फ़ैसले की घड़ी
अपने दिल से सलाह की जाए
चाँदनी हो या रात हो काली
संग तुम्हारे निबाह की जाए
जो मिला उसमें खुश रहो नीरज
ना किसी से भी डाह की जाए
24 जुलाई 2007 |