अनुभूति में
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अस्तव्यस्त में
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किताब का दिन
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कुआँ
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कुछ भी
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चिड़िया
चिमनी
चींटी तथा अन्य छोटी कविताएँ
टेलीफोन
डरौआ
तीसरा युद्ध
धोबी
पतझर एक मौसम तुम्हारे लिए
पतझर में
पानी का चेहरा
फिलिप्स का रेडियो
फोटोग्राफ़ में
बड़ा काम
बोध
माया
मैं
राख
सड़क का रंग
संकलनों में—
गुच्छे भर अमलतास -
ग्रीष्म
सनटैन लोशन
१५ मई
पिता की तस्वीर -
डाक
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पनकौआ
कुछ दिनों में आएगा एक मौसम
इस अक्षांस में अगर वसंत हुआ
मैं कपड़ों को बदलूँगा
आस पास के नक़्शे देखूँगा टहलने के लिए
पेड़ों पर कोंपले आएँगी
बची हुई चिड़ियाएँ लौटेंगी दूर पास से,
आशा है एलान ना होगा ख़बरों में
किसी नई लड़ाई का
खंखारूँगा गला पूरा कहने अधूरा कि चुप हो जाऊँगा
लंबा हो इतना इस बार मौसम कि
जल्दी ना लौटें यादें पतझर की
शब्दों के एकांत में
छोटा होता जा रहा वसंत हर साल
छोटा हो रहा है हर साल वसंत में,
कभी लगता शायद दो ही मौसम हों अब से
दो जैसे
अच्छा बुरा
सुख दुख
प्रेम और भय
तुम और मैं
जिनमें बँट जाएँ पतझर और वसंत और होती रहे सूखती बारिश साल भर
यूँ ही सोचा लिखा जाना रसोई से आती किसी स्वाद की गंध
अपनी आस्तीन में पाकर
नीरव पिछवाड़े में कुछ बूझने की चाह में
एक छोटी सी जगह में कोई तिलभर कुनिया खोजता
तो कुछ दिनों में आए केवल एक समय
दुनिया को बाँटने
जिसे याद रखने के लिए भूलना पड़ेगा सबकुछ
ज़रूरी सामान की पर्चियों के साथ अकेले,
जीने के लिए केवल साँस ही नहीं
प्रेम की आँच मन के सायों में
हाथ जो गिरते हुए थाम लेता
रोज़ की रेज़गारी गिनतारा में जमा
बेगार के उधारों को जोड़ते
जर्जर समकाल में घबराए सूखे गालों को टटोलते
नहीं देखा मैंने अब तक इस व्यतीत को,
आइने के भीतर से
जब लगाता हूँ मैं छपाक उसके उजले अनजान में
कुछ पाने कुछ खोकर
१ दिसंबर २०२३ |