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माया
मैं बारिश में शब्दों को सुखाता
हूँ
और एक दिन उनकी सफेदी ही बचती है
जगमगाता है बरामदा शून्यता से
फिर मैं उन्हें भीतर ले आता हूँ
वे गिरे हुए छिटके हुए कतरे जीवन के
उन्हें चुन जोड़ बनाता कोई अनुभव
जिसका कोई अर्थ नहीं बनता
बिना कोई कारण पतझर उनमें प्रकट होता
बाग की सीमाओं से टकराता
कोई बरसता बादल,
दो किनारों को रोकता कोई पुल उसमें
आता जैसे कुछ कहने,
अक्सर इस रास्ते पर कम ही लोग दिखते हैं
यह किसी नक्शे में नहीं है
कहीं जाने के लिए नहीं यह रास्ता,
बस जैसे चलते चलते कुछ उठा कर साथ लेते ही
बन पड़ती कोई दिशा,
जैसे गिरे हुए पत्तों को उठा कर
कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं
१६ जुलाई २००६ |