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बारिश में भीगता चला जाता
लाल कोट पहने डाकिया
थैला भर डाक से लदा,
काग़ज़ों में संदेश अच्छे बुरे कुछ
निमंत्रण कुछ अस्वीकार
अक्सर वो बिल ही गिरा जाता है,
मेरे पिता भी डाक ले जाते थे
गाँवों के बीच रुकते कहीं बीच सांस लेने
थोड़ा तंबाकू
पढ़ते दिल्ली से आई अपनी ही लिखी चिठ्ठी अपने नाम
पानी की आवाज़ छूती हर पत्थर घास शिखरों के परे
सफ़ेद घुमक्कड़ बादलों को,
हर सांस को
कब आ रही है सुबह की डाक
चंदन का पहला सवाल
कई महीनों से
पहला सवाल
और मैं लौटा नहीं जवाब के साथ
नहीं चला गया बारिश में,
चमकती गर्मी में
तीखी सर्दी में
ठहरी हुई उमस में
अपनी असहायता को उठाए,
जैसे फटी हुई पतंग को उड़ाने की कोशिश में -
दौड़ता मैदान के आर पार
बिना रुके
और वह फटती चली जाती है और, और उस दौड़ में
भूल ही जाता हूँ अपने पाँवों को भी
- मोहन राणा
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