क्षणिकाएँ
आज का मौसम
इस आकाश को रंग दूँ इस सुबह
इस स्लेट पर लिख दूँ कुछ
कुछ जो बदल दे
सारे अर्थ बिना शब्दों के-
शरद
पीले होते और जैसे उसी पल वे गिर पड़ते
इतने सुंदर और अचानक यह अंत,
या मैं ही पहुँचा देर से इस पल
क्या
उसका कोई और रंग होता
तो क्या मैं उसे प्रेम न करता
इसलिए पसंद है नीला रंग क्या
सफेद सुबह
उसका कोई और रंग होता
तो क्या मैं सोचता आज
उसके रंग के बारे में
वह अगर काली होती तो
सुबह न होती फिर
युद्ध अभी नहीं, कभी
नहीं, बर्तोल्त ब्रेश्त सांस
कहते हम अपने से, दूसरे से कि युद्ध नहीं,
युद्ध नहीं लड़ पड़ते इसी बात पर
रक्त से लिखते शांति इश्तिहारों पर,
किस की है यह साँस इस सन्नाटे में
१६ जुलाई २००६ |