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किताब का दिन
आज का किताब का दिन
कितने पेड़ इन पन्नों के बीच
लंबी यात्रा इस एक किताब में,
शुरू होता है यहीं कहीं बीच से कोई जंगल
छुपे हैं कई मौसम इसकी जिल्द में,
अनजाने सन्नाटे
कोई फड़फड़ाहट
चलती हुई कुल्हाड़ी
बिजली का आरा
हुश यहाँ सोया है पेड़ मेरे हाथों में
अपने आप
बिना मुखौटों के पढ़ सकते हो तुम ये कविताएँ
अंधेरे में भी दिख जाते हैं इनमें बंधे शब्द
रोशनी की लड़ी की तरह,
उतार के टांक दो मुखौटों को दीवार पर
इन कविताओं में देख सकते हो तुम अपने को
कहीं कोने में तस्वीर के
और कोई तुम्हें पहचान नहीं पाता है भीड़ में,
आँख मूँद लो तो हो सकती हैं ये कोई नाव, हवाई जहाज, साइकिल
बादल पेड़ आकाश
मैं-तुम नींद सपना बगीचे में गुब्बारे से उतरता आदमी
कुछ भी कुछ भी हो सकती हैं ये कविताएँ-
कोई खुशी दुख और कभी प्रेम
अगर चाहो तो अपने आप
आरी की कीमत
कटे हुए पेड़ों में गंध बची है हरेपन की
धीरे धीरे फीकी होती सूखे पत्तों में
अपने आप को टटोलता पतझर
झिझकता कुछ देखने अपने पैरों तले सुनकर कोई आवाज,
मैं संतोष व्यक्त करता
सफलता से पेड़ को काट गिराने में
आरी की कीमत वसूल हो गई
चिड़िया
उड़ान से गिरती
मरती फिर जमती मैं छोटी सी चिड़िया
मुझे मिला अनंत आकाश प्रेम की तरह
फिर भी मैं सो न सकी
इस भूख से उस प्यास तक
इस विजेता से उस परास्त तक
मैं गाती रही किसी और के लिए
नक्शों में अपना घर खोजते मनुष्य के साथ भटकते
और मैं लिखना चाहती थी कुछ बड़े बड़े अक्षरों में
जो दिख जाएं आकाश गंगा से भी,
पर ऐसा हो न पाया कभी
सोचते सोचते ही सो गई
१६ जुलाई २००६ |