अनुभूति में
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ग्रीष्म
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१५ मई
पिता की तस्वीर -
डाक
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मैं
कई कई दिन बीत जाते
कई महीने भी और फिर सोचता
क्या मैंने सोचा कुछ इस बीच
कोई बात
कहने की
बस अपने में गुमसुमाया
अनायास जैसे
अपनी आशाओं में बैठी प्रतीक्षाओं को देख चौंकता
सबकुछ छोड़ कर निराशाओं के कर्तव्य निभाने
पाता स्वयं को कुछ करते
भरते एक दरार
काटते किसी पेड़ को
सींचते सूखते पौधों को
उठाकर एक ओर रखता अधूरी कार्य सूचियों को
कई कई दिन बीत जाते एक जैसे कई
कि बस एक ही दिन
कभी मैं सोचता छत को देखते
वहाँ आकाश भी है उसके पार
बाहर अँधियारे में खड़े भीगते पेड़ों को नींद कब आती होगी
शायद जब तक मैं सो न जाऊँ,
मैं सोचता उसकी बगल में लेटे
क्या हम बिस्तर पे लेटे दो डरौए है दीवार पे टंगी तस्वीर में
जिसे देखते हम हंस पड़ते एक साथ बदल कर करवट
कल कैसे याद रखूगा अपने को
आईने में किसी पहचान को घूरता,
कई कई दिन बाद आज मैंने सोचा
मैं किसका परिचय देता रहा अब तक |