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  बोध

पेड़ भागते हैं कुछ देर साथ
फिर खंबे साथ हो लेते हैं
पहाड़ दूर ही रहते हैं उदासीन
ताकि बाकी दुनिया चलती रहे
ताकि मैं सोचूँ बेचैनी में कुछ दिलचस्प
उदासीन दोपहर की छायाओं में
एक उम्मीद में देखते हम बादलों की ओर
पर वे नहीं हैं कहीं आस-पास
दूर होती जा रही नदी की आवाज़ भी
धीमा होता जाता यातायात
रास्ते बंद हो रहे हैं ऋषिकेष से हरिद्वार जाते,
देखते एक दूसरे को
बिना बोलें कह देते सवाल
क्या शताब्दी समय पे जाएगी दिल्ली आज
और हँस पड़ते याद कर अपनी हालत टैक्सी में कुछ देर पहले
चल पड़ती रेलगाड़ी
छूटता कोलाहल धुँधलके में कहीं,
पूरा हुआ समय से एक द्वंद्व समय पर पहुँचने का
पर भीतर चलती रहती हैं अनिस्तर बुदबुदाहटें
कोई उपाय कोई तीसरा किनारा
जैसे कहीं ना पहुँच पाना ही गंतव्य हो यात्रा का

१६ जुलाई २००६

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