चींटी
डूबता हुआ सूरज छोड़ गया
सुनहरे कण पत्तों पर,
पेड़ उन्हें धरती में ले गया अपनी जड़ों में
और कुछ मैंने छुपा लिए पलकों में
बुरे मौसम की आशंका में
किनारा
बहुत दूर तैरती नाव
कोई जहाज
कुछ बहुत दूर तैरता लहरों के पार
आती जो पास मुझे लपकने हर उफान में
जैसे कोई निराशा
लौट जाता समुंदर हार कर किसी और छोर को
दोपहर बाद,
हर दिन मैं ताकता उस बहुत दूर को
देखता जैसे अपने आप को बहुत दूर से
और पहचान नहीं पाता
परिचय
भूल कर अपने को छोड़ आया मैं किसी आले में
दिये की जगह
छुपा आया मुखौटा भी किसी खोल में
ढाँप दी अपनी पगडंडियाँ घास से,
अनजान बनने के लिए
पुरानी तारीखों को चस्पा दिया,
पर लिख नहीं पाया अब तक अपना
परिचय
किसका दुख
याद रखने के लिए मैं
तुम्हें भूलना चाहता हूँ
पहाड़ों की ऊँचाई
घाटियों का विस्तार
बची बर्फ के निशान
मैं लिख लेना चाहता हूँ
कुछ जो मैं बस देखता हूँ
निरंतर सीत्कार
समुंदर को किसका दुख है
१६ जुलाई २००६ |