यही सोचकर निकला
यही सोचकर निकला घर से।
शायद कुछ मिल जाए शहर से।।
मुश्किल बहुत पार लग जाना।
जब पानी ऊपर हो सर से।।
कितने भी घुटने मोड़े पर।
बाहर पाँव रहे चादर से।।
छोटा बड़ा नहीं है कोई।
देखो तो तुम एक नज़र से।।
अब तक हमने क्या सीखा है।
मंदिर मस्ज़िद गिरजाघर से।।
जब तक चूल्हा नहीं जलेगा।
भूख नहीं जाएगी घर से।।
मैं सोया या जगा रात भर।
पूछूँगा अपने बिस्तर से।।
१६ मार्च २००९ |