नचाते रहे पहले कठपुतलियाँ
जो नचाते रहे पहले कठपुतलियाँ।
उनके हाथों की सारी कटी उँगलियाँ।।
तेज़ रफ़तार से जो चले थे कभी।
क्या खड़े होंगे फिर से कटी उँगलियाँ।।
बात लाखों की खुलकर मिली खाक में।
चाहकर न दुबारा बँधी मुट्ठियाँ।।
द्वार स्वागत के जिनके लिए थे खुले।
आज उनके लिए बंद हैं खिड़कियाँ।।
जिनकी ख़बरों से आकाश गुंजित रहा।
अब भटकते हैं ज्यों वे पते चिट्ठियाँ।।
इस तरह वक्त बदला है हम क्या कहें।
आसमाँ पर गिरी लौटकर बिजलियाँ।।
24 अगस्त 2006
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