मुझे चिढ़ा रहे हैं
मुझे चिढ़ा रहे हैं जी भर के।
आइनें फेंक दो सारे घर के।।
दो घड़ी हँस नहीं पाया उपवन।
पाहुने आ गए हैं पतझर के।।
ग़लत छतों पर उतर आते हैं।
काट दो पंख इन कबूतर के।।
ब्याह के बाद अक्सर देखा है।
बंद हो जाते द्वारा पीहर के।।
कहानी खत में कौन पढ़ता है।
करो ई-मेल ढाई आखर के।।
जिनके दर पे रहा कभी मेला।
आज वे हो गए हैं दर दर के।।
१६ मार्च २००९ |