असीम स्वर खटक रहे हैं
कोलाहल में अपनेपन के शीशमहल सब चटक रहे हैं
हम प्रकाश के लिए तरसते अंधियारे में भटक रहे हैं
स्वयं प्रकाशित होते तारे,
लेकिन बात और सूरज की।
सरवर तट पर फूल अनेकों,
आभा दिखती अलग जलज की।
लहरों पर बहते चिराग़ भी कब बोलो सन्निकट रहे हैं
हम प्रकाश के लिए तरसते अंधियारे में भटक रहे हैं
कस्तूरी के लिए भटकते,
मृग को कब मिले सफलता
चाँद भले अपनापन खोए
मगर चाँदनी दे शीतलता
सीमाओं को निज के जाए अब असीम स्वर खटक रहे हैं
हम प्रकाश के लिए तरसते अंधियारे में भटक रहे हैं
अपने नहीं ह्रदय के टुकड़े,
औरों के पालो क्या ग़म है
मावस के नवजात शिशु को,
युग से पाल रही पूनम है
मन संतोष भरा तबसे हर दिन फिर नीले रंग छिटक रहे हैं
हम प्रकाश के लिए तरसते अंधियारे में भटक रहे हैं
1 जून 2006
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