तूफ़ान से टकराते हैं
लोग जो तूफ़ान से टकराते हैं
ठोकरें खाते हैं मुसकुराते हैं
वक्त के साथ-साथ चलते जो
अपना इतिहास खुद बनाते हैं
लोग उन्हें देवता समझते हैं
गीत जो आदमी के गाते हैं
उसने महफ़िल में कब बुलाया है
फिर भी हम हैं कि रोज़ आते हैं
पसीने की बूँद को पारस समझो
खेत के खेत लहलहाते हैं
धर्म को व्यापार समझने वाले
रोज़ गीता की कसम खाते है
रेत के महलों में कौन रहता है
हवा चलती है बिखर जाते है
1 जून 2006
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