पथ के विंध्याचल
कोई नहीं उठा स्वागत को पीड़ा की करने अगवानी
मेरे गीत उसे ले आए मेरे मन के सिंहासन तक
मुझको नहीं शिकायत उनसे
जिनका रिश्ता हो बहार से
समझाना भी व्यर्थ उन्हें है,
जो न समझें कभी प्यार से
जो ठोकर खा गिरे उन्हें भी लोगों ने सौ बात सुनाई
मैं उनको ले चला उठाकर निज कंधों पर नील गगन तक
संबंधों की मृगतृष्णा में
घूम चुके हम मरुथल सारा
गाते-गाते चुप हो गए
बीच सफ़र में मन बंजारा
चट्टानों को देख सामने रस्ते बदल लिए लोगों ने
मैंने पथ के विंध्याचल में झुका रखा है पालागन तक
सूरज पर कीचड़ उछालते
लोग मिले मुझको बहुतेरे
लेकिन कोई मिला न ऐसा
जो पी जाए सघन अंधेरे
सच्चाई को निर्वसना कर कुछ सौदे पर आमादा थे
उसे चुनरिया देकर रक्खा मैंने मस्तक के चंदन तक
1 जून 2006
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