सभी को लुत्फ़ आता है
सभी को लुत्फ़ आता है पराये माल में जैसे।
लचकता चल रहा है हर कोई भोपाल में जैसे।।
हमारी लेखनी से काव्य की धारा यों चलती है।
कि बाबू भागता ऑफ़िस को आपात काल में जैसे।
हमारे दोस्त हमको देखकर नज़रें चुराते हैं।
कि घूँघट, डाल बीबी देखती ससुराल में जैसे।।
सभी रस काव्य में कुछ इस तरह हमने निचोड़े हैं।
ले पेटी इत्र की कोई चले रूमाल में जैसे।।
सभी छंदों को हमने बंधनों से मुक्त कर डाला।
कि महिलाएँ हुई उन्मुक्त महिला साल में जैसे।।
हर महफ़िल हमारा साथ पाकर यों महक जाती।
नमक ज़्यादा ज़रा-सा हो गया हो दाल में जैसे।।
नई नित कल्पना को हम सहजता से पकड़ते हैं।
कि कोई सोन मछली फँस तड़फती जाल में जैसे।।
हम हर विधा में दखल रखते हैं बराबर का।
कि सिक्के एक से ही ढल रहे टकसाल में जैसे।।
24 अगस्त 2006
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