अमावस का दर्द
मिला एक ही चाँद पूर्णिमा जीवन भर मुसकाती
है
भला अमावस अपने तारे कब पूरे गिन पाती है
एक कन्हैया से वृंदावन,
अब तक पुलकित होता है
एक कुमुदिनी खिल जाने से
सरवर मुखरित होता है
कोलाहल में तो कोयल भी अपने स्वर खो जाती है
सीमित हो आकाश तो हर धुन शहनाई बन छाती है
एक ध्रुव तारा क्या कम है,
अब तक राह दिखाता है।
स्वाति बूँद का प्यासा चातक
क्या सावन से पाता है
सागर की अथाह जलनिधि से प्यास नहीं बुझ पाती है
लेकिन एक बूँद सरिता की गंगा जल बन जाती है
मन तो युग से बंजारे हैं
उनको एक ठिकाना दे
दो ही सपने सजा अंक में
जिनको नरम बिछौना दे
मरुथल में बढ़ते जाने से मृगतृष्णा ललचाती है।
दो ही फूल खिलें तो डाली मधुवन-सी इतराती है।।
1 जून 2006
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