भटक रहे हैं बाबूजी
कल के राजा आज सड़क पर भटक रहे हैं बाबू जी।
खूनी रिश्ते धीरे-धीरे चटक रहे हैं बाबू जी।।
यहाँ ज़िंदगी है सरकस-सी केवल खेल तमाशा है।
सच पूछो तो सभी हवा में लटक रहे हैं बाबू जी।।
अंधकार में किसी तरह तो रास्ता कुछ तय होता था।
तेज उजाले अब आँखों को खटक रहे हैं बाबू जी।।
सर पर लटक रही तलवारें केवल कच्चे धागों से।
कितनी बेफ़िक्री से हम सब मटक रहें हैं बाबू जी।।
इज़्ज़त का सौदा होता है सड़कों पर चौराहों पर।
संविधान सारे अपना सर पटक रहे हैं बाबू जी।।
जीने का अधिकार हमें है मरने पर है पाबंदी।
इसीलिए बहुतेरे मुर्दे भटक रहे हैं बाबू जी।।
इस रस्ते पर ख़ास सवारी शायद आने वाली है।
आम आदमी धीरे-धीरे सटक रहे हैं बाबू जी।।
आग लगाकर ताप रहे हैं सब अपने-अपने घर को।
जो कहते थे हम इस घर के घटक रहे हैं बाबू जी।।
झूठों के सिर ताज यहाँ पर और सत्य को तख़्ता है।
इसीलिए हम सच कहीं में भटक रहे हैं बाबू जी।।
24 अगस्त 2006
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