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बहुत हो चुके होएँगे भी
पर यह साल निराला हो
सुख पीड़ा के आँसू पोंछे
हर्ष दर्द से गले मिले
जिनसे शिकवे रहे उम्र भर
उन्हें न तिल भर रहें गिले
मुखर हो सकें वही वैखरी
जिसके लब थे रहे सिले
जिनके पद तल सत्ता उनके
उर में कंठी
माला हो
पग-ठोकर में रहे मित्रता
काँटा साझा साखी हो
शाख-गगन के बीच सेतु बन
भोर-साँझ नव पाखी हो
शासक और विपक्षी के कर
संसद में अब राखी हो
अबला सबला बने अनय जब
मिले आँख में
ज्वाला हो
मानक तोड़ पुराने नव रच
जो-कह-चुके,-न-वह-कह-कवि-बच
बाँध न रचना को नियमों में
दिल की, मन की बातें कह सच
नचा समय को हँस छिन्गुली पर
रे सत्ता! जनमत सुन कर नच
समता-सुरा पिलानेवाली
बाला हो,
मधुशाला हो
- संजीव वर्मा सलिल |
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आइये! यह प्रार्थनाओं का-समय-है
कुछ-नए-संकल्प-लें-नव-वर्ष-पर-अब
रक्त के छींटे पड़े हैं
धर्म के उजले वसन पर
हिंस्र पशुता से सनी है
पंथ-मजहब की कलाई
प्रेरणा के पृष्ठ भी
किन पोथियों में बंद हैं अब
ज्ञान की नैतिक कथाओं में
छिपी सिसकी रुलाई
आइये! यह याचनाओं का-समय-है
ध्यान-कुछ-ठहरे-नए-आदर्श-पर-अब
प्रेम की, सौहार्द की
सच्चाइयों को शब्द देकर
जागती, जीती रहें
सब कारुणिक संवेदनायें
प्राणमय विस्तार हो
हर रोम में अनुभूतियों का
शान्त मन सद्भावना
संचेतना के गीत गायें
आइये!-अभिमन्त्रणाओं-का-समय-है
हर्षमय-संगीत-हो
उत्कर्ष पर अब
तोड़कर भूगोल का
सीमित विभाजन नीतियों में
मानवी विश्वास के
अंकुर उगें सारी धरा पर
कामना हम क्या करें
नववर्ष पर,बस याचना है
रक्त-रंजित हादसा
कोई न हो पाये कहीं पर
आइये!-संभावनाओं का समय है
तोड़ते-जड़ता चलें संघर्ष पर
अब
- जगदीश पंकज |
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देह बँटी, उम्र घटी
बीत गया एक और साल
जीवन के मरुथल में
उगे नहीं सपनों के बीज
अपनों की आहट को
तरस गई मन की दहलीज
यहाँ मिले, वहाँ मिले
अनसुलझे-अनगिनत सवाल
स्वार्थ के अलावों में
झुलस गए नेह के निबंध
घावों को सहलाने
साथ रहे खारे-अनुबंध
उलझाए रखने को
थे तमाम अपने ही जाल
साँस-साँस और भी
सशक्त हुये पीड़ा के हाथ
अनचाहे-अनजाने
फिसल गया शहदीला-साथ
तुम हारे -हम हारे
जीत गया - निर्मोही-काल
- जय चक्रवर्ती |
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रेशमी अहसास-सा
भरमा गया यह वर्ष
केसरी फुलवारियाँ थीं
फील गुड की क्यारियाँ थीं
संदली वादे थे लेकिन
मुल्क में दुश्वारियाँ थीं
कागज़ों पर हो रहा था
देश का उत्कर्ष।
गाज़ रिश्तों पर गिराता
सत्य का चेहरा दिखाता
बौखलाए आदमी को
अपनी उँगली पर नचाता
दे गया सुधियों में कितने
अनकहे संघर्ष
बिक गयीं सम्वेदनाएँ
शेष हैं केवल व्यथाएँ
मौन के पिंजरे में बेबस
छटपटाती वेदनाएँ
आज घायल है समय की
धार पर नववर्ष
- मालिनी गौतम |