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लौट आओ
धूप की किरणों
दिसंबर जा रहा है
शुभ लगन में शुभ घड़ी है
साल की अंतिम विदा है
आगमन नववर्ष का
कल्याणकारी ही सदा है
भूल कर
शिकवे गिले सारे
गगन भी गा रहा है
कुछ नयी सौगात लेकर
द्वार पर मंगल खड़ा है
कर्ममय या धर्ममय हो
साधना का पथ बड़ा है
सूर्य का
रथ फिर नया
प्रतिमान गढ़ने आ रहा है
क्रान्तियाँ भी हैं मगर
प्रतिकूलता निस्तेजना भी
ये मनुज के वंश की है
अनकही-सी वंचना भी
रश्मियों की
रौशनी से पर
तमस घबरा रहा है
- रंजना गुप्ता |
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बोझ बढ़ते हुये झुकती जाती कमर
पड़ते घठ्ठे वही खाल में।
है नया क्या नये साल में!
खुशबू रोटी की
चूल्हे से नाराज है
दूर मुँह से डकारों
की आवाज है
ओढ़कर सिसकियाँ सोतीं भूखें वही
झाँक खाली पड़े थाल में।
आश्वासन वही
थोथे आकाश के
मेघ झूठे गरजते
हुये आस के
दिन ब दिन सूद पर सूद चढ़ता वही
दिन घिसटते फटेहाल में।
बजती नेपथ्य में
चैन की बाँसुरी
खिलखिलाती हुई
वृत्तियाँ आसुरी
छेंक कर ताल-तट बैठे मछुये वही
मछली फँसती हुई जाल में।
- कृष्ण नन्दन मौर्य |