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सच कह दूँ
तो |
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सच कह दूँ तो एक कलेण्डर
दोहरायेंगे हम हर साल.
मुँह पर पत्थर रख कर हमने
पिछले दिन काटे हैं अपने
नहीं उतरते
भरी आँख से
कच्ची नींदों वाले सपने
सच कह दूँ तो फिर कल होंगे
जी लेने के तीन सवाल.
ऊँच नीच क्या असली-नकली
है सब घटना क्रम जीवन का
इस चर्चा में
हल निकलेगा
केवल भ्रम है अपने मन का
सच कह दूँ तो मौसम अब भी
रोज बदल देता है चाल..
जब से गुजरी हैं गलियों से
हाँक लगातीं कुछ आवाजें
निर्णय लेती नहीं
खिडकियाँ
बात नहीं करते दरवाजे
सच कह दूँ तो क्या गारण्टी
दाल गलेगी अगले साल-
निर्मल शुक्ल |
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उत्सव नव वर्ष
का
गीतों में-
छंदों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
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