चलो मिलकर
चलो मिलकर इस समय की आँख में फिर
आँख डालें
रेत से बिखरे कणों को इन तटों पर
फिर सँभालें
है हवा गमगीन माना ज़िंदगी थम सी गई है
रात लिखती है इबारत हर सुबह फिर सुरमई है
शोर है यह चुप्पियों का पास खुशियों
को बुला लें
सब्र की बहती नदी में साँस का है खेल सारा
बर्फ होते इस शहर में हर तरफ़ बिखरा नजारा
है वबंडर आँधियों के पाँव अंगद
सा जमा ले
टूटना हमको नहीं है स्याह तम को है हराना
लाख बदले आज मौसम धूप का भी है ठिकाना
रंग खुशियों के चुराकर चित्र जीवन
के बना लें
१ मई २०२३
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