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जिंदगी जंगी हुई
जिंदगी जंगी हुई
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर घिस रही
वो धार हो जैसे।
निज सड़क पर रात में
जब देह काँपी थी
काफिरों ने हर जगह
फिर राह नापी थी
कातिलों से घिर गया
संसार हो जैसे।
है द्रवित मंजर यहाँ
छलती गरीबी है
आबरू को लूटता
वह भी करीबी है।
आह भी, निकला हुआ
इक वार हो जैसे
आँख में पलता रहा है
रोज इक सपना
जून भर भोजन मिले
घर, द्वार हो अपना।
रात में जलता बदन
अंगार हो जैसे
१ मार्च २०१६
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