थका थका सा
थका थका सा
दिन है बीता
दौड़-भाग में बनी रसोई
थकन रात
सिरहाने लेटी
नींद नहीं आँखों में सोई
रोज पकाऊ
दिनचर्या की
घिसी पिटी सी परिपाटी
नेह भरे
झरनों से वंचित
सम्बन्धों की सूखी घाटी
कजरारी
बदली ने आकर
नर्म धूप की लटें भिगोईं
साँस साँस पर
चढ़ी उधारी
रहने का भी नहीं ठिकाना
संध्या के
होठों पर ठहरा
ठंडे संवादों का बाना
उमर निगोड़ी
नदी किनारे
जाने किन सपनों में खोई
नहीं आजकल
दिखते कागा
पाहुन का सन्देश सुनाते
स्वारथ के
इस अंधे युग में
कातिल धोखे मिलने आते
गन्ने ने
बदली है सीरत
फाँकें भी हैं छोई छोई।
२३ मार्च २०१५
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