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संदूक

छोटी कविताओं में—
संगति
कैक्टस
रोको मत
लक्ष्मी

 

ज़िंदगी धुंध है

ज़िंदगी धुंध है, कुहासा है
मन समंदर है, फिर भी प्यासा है

ढूँढ़ते हम किसी को भीड़ में भी
सब है यह तो महज़ दिलासा है

सुबह है कह रहे हैं सारे लोग
क्यों फिर माहौल रात का सा है

रौशनी तो शहर में काफी है
बस मेरा घर ज़रा बुझा सा है

१४ जनवरी २०१३


 

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