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वक्त के फंदे

शीत लहर चलती है
तो स्वेटर, कोट निकल आते हैं
दस्ताने, मफलर, टोपी
कुछ बातों को दोहराते हैं

कि कार के शीशे में
जमने लगते हैं
बर्फ बन कर
इसके, उसके, तुम्हारे ख्याल
हथेली पर उगने लगते हैं
कुछ बीते साल
प्रश्नचिन्ह पीछा करते हैं
और अनुत्तरित ही रहते हैं
कुछ अनुत्तरित सवाल।

नन्हे- नन्हे दस्तानों में कैद
बच्चे की बेचैन उँगलियों से
उधड़ने लगते हैं
वक्त के फंदे।
जाने कब
लिपटने लगते हैं
ऊन के गोले में
याद के परिंदे।

कि मैं ढूँढने दौड़ती हूँ
पुरानी अलमारी के
किसी कोने में दबी
माँ की दी हुई
बुनने की सिलाई
जाने कितने सालों से
जो मुझे
याद नहीं आई।

कि उधड़ते फंदे उठाती हूँ
उलझा ऊन सुलझाती हूँ
और यादों के दस्ताने पहन
छोटी बच्च्ची बन जाती हूँ।

२८ नवंबर २०११

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