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लक्ष्मी

 

माँ दो कविताएँ

-१-

माँ ऊन सलाई ले
गिरे हुए फंदे उठाती है।

मोटी लाल बिंदी में
कुछ अधिक ही
माँ नज़र आती है।

वो बात बेबात
हँसती है, मुस्कुराती है।

कड़कती धूप में
शीतल हवा सी
मन को सहलाती है।

तनहा सफ़र में
साथ मेरे चलती है
मुझको समझाती है।

कंगारूओं के देश में
अपनी उस माँ की
मुझे याद आती है।


 -२-

माँ शायद कुछ और
बुढ़ा गई होगी

पड़ गई होंगी
चेहरे पर
कुछ और झुर्रियाँ
बढ़ गई होंगी
रिश्तों में
कुछ और दूरियाँ

कुछ और फैल गया होगा
उसका अकेलापन
कुछ और सताता होगा
आँखों का धुँधलापन

सुई पिरोते उसके हाथ
कुछ और काँपते होंगे
रिश्तेदार शायद
उससे दूर भागते होंगे

उसकी बूढ़ी आँखें
कुछ भाँपे या न भाँपे
पर मैं
भाँप जाती हूँ सब कुछ
हज़ारों मील दूर यहाँ
कंगारूओं के देश में।


२८ नवंबर २०११

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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