अनुभूति में
रेखा राजवंशी की रचनाएँ —
नई रचनाओं में-
अपनों की याद
दर्द के पैबंद
पिता
माँ दो कविताएँ
वक्त के पैबंद
छंदमुक्त में—
कंगारुओं के देश से
जिंदगी छलने लगी
ढूँढ रही हूँ चंदन
दोस्ती
पिघलता अस्तित्व
बचपन के दिन
बदलाव
भाई को चिट्ठी
विदेश में भारत
सफर एक औरत का
संदूक
छोटी कविताओं
में—
संगति
कैक्टस
रोको मत
लक्ष्मी
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माँ दो कविताएँ
-१-
माँ ऊन सलाई ले
गिरे हुए फंदे उठाती है।
मोटी लाल बिंदी में
कुछ अधिक ही
माँ नज़र आती है।
वो बात बेबात
हँसती है, मुस्कुराती है।
कड़कती धूप में
शीतल हवा सी
मन को सहलाती है।
तनहा सफ़र में
साथ मेरे चलती है
मुझको समझाती है।
कंगारूओं के देश में
अपनी उस माँ की
मुझे याद आती है।
-२-
माँ शायद कुछ और
बुढ़ा गई होगी
पड़ गई होंगी
चेहरे पर
कुछ और झुर्रियाँ
बढ़ गई होंगी
रिश्तों में
कुछ और दूरियाँ
कुछ और फैल गया होगा
उसका अकेलापन
कुछ और सताता होगा
आँखों का धुँधलापन
सुई पिरोते उसके हाथ
कुछ और काँपते होंगे
रिश्तेदार शायद
उससे दूर भागते होंगे
उसकी बूढ़ी आँखें
कुछ भाँपे या न भाँपे
पर मैं
भाँप जाती हूँ सब कुछ
हज़ारों मील दूर यहाँ
कंगारूओं के देश में।
२८ नवंबर २०११
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