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पिघलता अस्तित्व

कभी-कभी
बर्फ की मानिंद
अस्तित्व पिघलता है
फूलों पर जमी
ओस की तरह
अलस्सुबह टपकता है ।

कन्धों पर उठा लेती हूँ मैं
गुज़रे हुए वक़्त की नदी
नदी के कच्चे किनारे
और नदी के किनारे उगा हुआ
पुराना विशाल बरगद ।

प्रयास करती हूँ निरर्थक
रोकने का उस सुनामी को
जो हमारे बीच आती है ।
नदी रुकती नहीं
पर बाढ़ थम जाती है ।
और मैं खिड़की के पास खड़ी
करने लगती हूँ पीछा
रात के दामन में फैले
छोटे-छोटे सितारों का
जिसमें मौजूद है
इसका, उसका, तुम्हारा ख्याल ।

३१ जनवरी २०११

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