ज़िंदगी की दौड़
झुरमुट की ओट में खड़े होकर
आँखें बंद करने से
रात नहीं होती
और न ही
बिजली के बल्ब के सामने खड़े होकर
दिन की अनुभूति होती है
दोनों ही नकारात्मक सत्य है।
अलसायी सुबह की लालिमा
और सुप्त रातों की कालिमा
दोनों ही व्यर्थ समय की तरह हैं
जिनका कोई व्यापक दायरा नहीं
निस्संदेह दोपहर का छरहरापन
क्षण-क्षण सरकती घड़ी का
गिलहरीपन है।
आपको अगर आगे
कोई बुनियादी बदलाव चाहिए
तो
अपने आज को
बीते हुए कल के दख़ल
और
आने वाले कल के असर से
कहीं दूर हटना होगा
और इस आज के सहारे
अपने आप में जीना होगा
क्योंकि,
ज़िंदगी की दौड़
अतीत के खोये कंधों पर सवार होकर
या फिर
भविष्य की काल्पनिक उड़ान पर
जीती नहीं जाती;
उसके लिए तो
वर्त्तमान की बुलंद बुनियाद चाहिए!!
५ अप्रैल २०१० |