रात
रात को सिर्फ़
दिन की परछाई मत समझ
रौशनी की लुगाई मत समझ
उसकी अपनी भी अहमियत है
साफ़ से भी साफ़-सुथरी नीयत है,
सब कुछ अपने अंदर समेटने का जज़्बा है
दिन की परिधि में रात का भी रुतबा है
छुपना-छुपाना भी जानती है
रौशनी को समझाना भी जानती है
वक्त के मुल्ले को बतलाना भी जानती है
कि निकाह में सिर्फ़ दुल्हन की हामी नहीं चाहिए
बराबर का हिस्सा मिले, जद्दो-जहद गुलामी नहीं चाहिए!
रात की शख़्सियत का अपना वर्तमान है
इस कायनात पर आगमन की दास्तान है-
रात का गर्भधारण समय के समागम से हुआ है
तड़के-तड़के उसकी पैदाइश पर जश्न भी हुआ है
बचपन ने सूर्य की किरणों में पंख पसारे हैं
किशोर अदाओं ने फ़िज़ा में सुगंध बिखेरे हैं
भरी दोपहरी ने छटाओं में जवानी भरी है
तब समय की आँखों में इसकी चर्चा बढ़ी है
अपराह्न ने इसका ज़िक्र कालचक्र की
और दिन ढले समय ने शादी की पेशकश की
गोधूलि में रात, दिन की दुल्हन बनी
जुगनुओं ने नवेली की आवभगत की
रक्ताभ क्षितिज ने पालकी बिठा कर
चिड़ियों ने पंखों की डोली उठा कर
रात को घर के चौखट के अंदर बिठा दिया
चाँद ने झरोखे से घूँघट हटा दिया
तारों ने खुशियों की बरसात की है
तब दिशाओं ने अहमियत की बात की है
कि रात किसी ने लाई नहीं है
रात ने अपने लिए खुद रात की है
पूरे कायनात पर व्यापक यही कहानी है-
वो रात की रानी है
आधी धरती पर हमेशा
उसका साम्राज्य रहता है
समय की धुरी पर वो
सत्ता गँवाती नहीं, बदलती है
तभी विश्व में धरा की सूई चलती है
हर दिन के बाद रात होती है
तब कहीं रौशनी की बात होती है।
१८ फरवरी २००८
|