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क्षण-क्षण बदलाव
क्षण-क्षण बदलाव से डरने लगा हूँ
अब तो अलगाव से डरने लगा हूँ
इन्सानी झील में पत्थर उछालो
ज़ाहिल ठहराव से डरने लगा हूँ
खु़द्दारी का लहू, देखा है बहते
खू़नी पथराव से डरने लगा हूँ
रोज़ाना ही भीड़, बढ़ती शहर में
गु़म होते गाँव से डरने लगा हूँ
मज़हब का ढ़ोल जो खुलकर बजायें
उनके बर्ताव से डरने लगा हूँ
झूठों की सोंच में, रंग फायदे का
उनके सदभाव से डरने लगा हूँ
सरकारी ख़र्च पर, लगता है अंकुश
हर रोज़ चुनाव से डरने लगा हूँ
१७ जनवरी २०११ |