अनुभूति में
दिनेश ठाकुर की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
कुर्बतें खो गईं
काश ख़्वाबों में कभी
सुकूँ के सब वसीले
रूठ गया जाने क्यों हम से
अंजुमन में-
आईने से
आँगन का ये साया
ज़ख्म़ी होठों पे
जाने दिल में
गम मेरा
ढलती शाम है
तू जबसे मेरी
थक कर
दूर तक
नई हैं हवाएँ
बदन पत्थरों के
मुकद्दर के ऐसे इशारे
मुद्दतों बाद
रूहों को तस्कीन नहीं
शीशे से क्या मिलकर आए
सुरीली ग़ज़ल
हम जितने मशहूर
हम दीवाने
हर तरफ़
हो अनजान |
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सुकूँ के सब
वसीले
सुकूँ के सब वसीले खो गए हैं
खड़े हैं पेड़ साए खो गए हैं
तमाशा यह निज़ामत का नया है
सभी शाहों के चेहरे खो गए हैं
बड़े आराम से फिरते हैं क़ातिल
निशाँ उँगली के सारे खो गए हैं
नहीं आता कोई अब मिलने हम से
कि जैसे घर के रस्ते खो गए हैं
ये कैसी रात है अंधे कुएँ-सी
उफ़क़ से गो सितारे खो गए हैं
ज़रा बतला तो दो उस बागबाँ को
चमन के इस्तिआरे खो गए हैं
भँवर ही है मुक़द्दर कश्तियों का
समंदर के किनारे खो गए हैं
बता देता है अब तो आईना भी
नज़र से नूर कितने खो गए हैं
नदी वो कौन-सी है देखना है
जहाँ सोहनी के क़िस्से खो गए हैं
कहाँ जाएँ मोहब्बत के मुसाफ़िर
वफ़ाओं के इशारे खो गए हैं
३० मई २०११ |