बदन पत्थरों के
बदन पत्थरों के, ज़ुबाँ पत्थरों
की
ख़ुली है शहर में दुकां पत्थरों की।
ख़ुदा जाने कैसे बसर अपनी होगी
सभी सूरत हैं यहाँ पत्थरों की।
ये शीशे का पैकर हटा रास्ते से
बड़ी सख़्त होती है जहाँ जां पत्थरों की।
पुकारोगे 'सिम सिम' तो दर इक
खुलेगा
मगर होगी बारिश वहाँ पत्थरों की।
जिसे सब ठिकाने पता हैं हमारे
हुई है वही राजदां पत्थरों की।
ज़रा मेरी जानिब मुहब्बत उछालो
मुझे आरज़ू है जवां पत्थरों की।
मैं कल आईने से गले मिलके रोया
छलक आई बाहर ख़िजां पत्थरों की।
मेरे पास आकर मेरे ज़ख़्म पढ़िए
लिखी है यहीं दास्तां पत्थरों की।
मैं दिल्ली में फूलों के घर
ढूँढ़ता था
मिली राजधानी मियां पत्थरों की। |