सुरीली ग़ज़ल
नदी इक सुरीली ग़ज़ल गा रही है
समंदर की जानिब बही जा रही है।
तमन्ना के दर, ख़्वाहिशों के
दरीचे
हर इक शै से तेरी सदा आ रही है।
तू आब्रे-करम बनके मुझपे बरस जा
अज़ल से हविस मुझको झुलसा रही है।
बुलंदी पे उफ़्तादियाँ घेर
लेंगी
ज़मी सबको सदियों से समझा रही है।
जबीं पर चमकतीं पसीने की बूँदें
तफ़्क्कुर पे गोया घटा छा रही है।
मैं इंजील जैसा मुक़द्दस नहीं
हूं
मुझे खोलकर क्या पढ़े जा रही है।
कोई बेस्तूं हो मेरे वास्ते भी
मेरे दिल पे भी आरज़ू छा रही है।
मोहब्बत की अब इंतिहा हो न जाए
ग़मों से खुशी की महक आ रही है।
ये लरज़िश-सी क्या है ख़ुदा
मेरे दिल में
कली गोया कोई खिली जा रही है।
कफ़स में कलम है न है रोशनाई
ग़ज़ल आँसुओं से लिखी जा रही है। |