ढलती शाम है
ढलती शाम है, रस्ता लम्बा
मुझसे मेरा साया लम्बा।
खेल हँसी का पल दो पल है
अलम का आलम खासा लम्बा।
कुछ उसको फुर्सत भी कम थी
कुछ था मेरा क़िस्सा लम्बा।
दुःख की तितली के पंखों पर
बाँधो सुख का धागा लम्बा।
खुल-खुल जाता है पहलू में
यादों का शीराज़ा लम्बा।
ढूँढ़ रहे हैं आँसू मेरे
बहने को इक दरिया लम्बा।
दिल में चाँद चमक उठता है
जब-जब तुझको सोचा लम्बा।
घूम रहा है कौन महल में
हाथ में लेकर शीशा लम्बा।
अपने काँटों के बिस्तर से
बेदारी का रिश्ता लम्बा।
निकल पड़े हैं हम भी घर से
सर में रखकर सौदा लम्बा।
८ फरवरी २०१० |