आँगन का ये साया ये समर सूख ना
जाए
पुरखों की निशानी है शजर सूख ना जाए
रिसता है लहू कैसे दिखाऊँगा मैं
उनको
रस्ते में मेरा ज़ख्म अगर सूख ना जाए
हर गम से रहे दूर तू दिल तोड़ने
वाले
तेरे शहर में खुशियों की नहर सूख ना जाए
लिखने हैं अभी मुझको कई दर्द
जहाँ के
अल्लाह मेरी भीगी नज़र सूख ना जाए
ये जब्र का पत्थर भी पिघल जाएगा
इक दिन
बस, दिल में दबी तेज़ लहर सूख ना जाए.
जो फूल खिलेगा वो तो सूखेगा यकीनन
इंसानों में खुशबू का सफ़र सूख ना जाए
३१ अगस्त २००९