रूहों को तस्कीन
नहीं
रूहों को तस्कीन नहीं हो,
जिस्मों को आराम नहीं
ऐसी राह चुनो मत लोगों, जिसमें सुबहो-शाम नहीं।
चलते-चलते थक जाओगे इक दिन तब
तुम सोचोगे
घर तजकर जोगी बनने का कुछ भी तो इनआम नहीं।
हर चाबी से खुल जाए दिल, ऐसा भी
नामुमकिन है
यह कुछ ख़ास समय खुलता है, यह दरवाज़ा आम नहीं।
अभी यहाँ से गुज़रा है फिर एक
ग़ज़ाला सोने का
सीता जी अब ज़िद मत करना अब लछमन अब राम नहीं
सब क़ब्रों पर वही मुक़द्दस-सी
ख़ामोशी छाई थी
कुछ कत्बे ऐसे भी देखे, जिन पर कोई नाम नहीं।
कल ये होगा, कल वो होगा, बहरे
हो गए सुन-सुन कर
अहले-सियासात की नज़रों में तक़रीरों का दाम नहीं।
ख़ाली हाथ दुकां से निकले, हम
ख़ुद को यों बहलाते
क्या लाना घर में वो चीज़ें, जिनका कोई काम नहीं।
इसकी फ़सीलों में सद आहें और
बुनियाद में टूटे दिल
इस मस्कन में मेरा अल्लाह, इसमें मेरा राम नहीं।
झेल चुके विपदाएँ सारी
गर्मी-सर्दी-बारिश की
तूफ़ानों से डर जाएँ अब इतने भी गुलफ़ाम नहीं।
कुछ मासूम ख़ताएँ हों, कुछ
जौक़े-असीरी हासिल हो
यह भी कोई बसर हुई कि थोडे भी बदनाम नहीं।
जब तरतीब दी ख़ुद को हमने आख़िर
तब ये राज़ ख़ुला
हम वो मुसलसल-सा अफ़साना, जिसका कु्छ अंजाम नहीं।
अपनी क़िस्मत उन ग़ज़लों-सी,
जिनको सुनकर जग रोया
जिनके हर मतले में आँसू, पर मकते में नाम नहीं। |