अनुभूति में
दिनेश ठाकुर की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
कुर्बतें खो गईं
काश ख़्वाबों में कभी
सुकूँ के सब वसीले
रूठ गया जाने क्यों हम से
अंजुमन में-
आईने से
आँगन का ये साया
ज़ख्म़ी होठों पे
जाने दिल में
गम मेरा
ढलती शाम है
तू जबसे मेरी
थक कर
दूर तक
नई हैं हवाएँ
बदन पत्थरों के
मुकद्दर के ऐसे इशारे
मुद्दतों बाद
रूहों को तस्कीन नहीं
शीशे से क्या मिलकर आए
सुरीली ग़ज़ल
हम जितने मशहूर
हम दीवाने
हर तरफ़
हो अनजान |
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कुर्बतें खो गईं
कुर्बतें खो गईं फ़ासला रह गया
अब मरासिम का बस नाम-सा रह गया
अजनबी शहर में अजनबी हैं सभी
आईना ही मेरा हमनवा रह गया
इक मुजस्सम ग़ज़ल थी मेरे रू-ब-रू
मैं जिसे देख कर सोचता रह गया
रूप उस का समंदर समंदर उड़ा
नाम सहरा में मेरा लिखा रह गया
उस की यादों की जगमग रही रात भर
दिल में झूमर-सा कुछ झूलता रह गया
इक नई दास्ताँ का वो आग़ाज़ है
आज पलकों पे पल जो थमा रह गया
शायरी कर रहे हैं अजब दौर में
कहना चाहा मगर अनकहा रह गया
दास्ताँ दिल की तुम पढ़ चुके हो तो फिर
'क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया'
लिख रहा था किसी को वो ख़त और मैं
इक लिफ़ाफ़ा बना काँपता रह गया
चंद यादों के सब्ज़े निगाहों में हैं
वर्ना अपने लिए क्या हरा रह गया
हर तलब के सफ़र का है हासिल यही
मंज़िलें खो गईं रास्ता रह गया
३० मई २०११ |