अनुभूति में
दिनेश ठाकुर की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
कुर्बतें खो गईं
काश ख़्वाबों में कभी
सुकूँ के सब वसीले
रूठ गया जाने क्यों हम से
अंजुमन में-
आईने से
आँगन का ये साया
ज़ख्म़ी होठों पे
जाने दिल में
गम मेरा
ढलती शाम है
तू जबसे मेरी
थक कर
दूर तक
नई हैं हवाएँ
बदन पत्थरों के
मुकद्दर के ऐसे इशारे
मुद्दतों बाद
रूहों को तस्कीन नहीं
शीशे से क्या मिलकर आए
सुरीली ग़ज़ल
हम जितने मशहूर
हम दीवाने
हर तरफ़
हो अनजान |
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काश ख़्वाबों में
कभी
काश ख़्वाबों में कभी ऐसा कोई मंज़र खुले
तू ही तू हो सामने, इक आलमे-दीगर खुले
फिर गए मौसम की खुशबू के कई पैकर खुले
सोचने बैठा तुझे तो कैसे- कैसे दर खुले
नक्श तेरा आ गया हर एक तख्लीकात में
देखिए क्या इश्क़ में अलफ़ाज़ के तेवर खुले
उस घड़ी कुछ नूर जैसा झिलमिलाया आँख में
याद के लालो-गौहर जब रूह के अन्दर खुले
याद आए लोग अपने घर के, गलियों के बहुत
हम पर जब यारो सफ़र में रह्ज़नो-रहबर खुले
सामने पा कर उन्हें मैं खुद बहुत हैरान था
आशना अहबाब के हाथों में थे खंजर खुले
कम कहाँ दुनिया हमारी मिस्र के बाज़ार से
जिस में यूसुफ़ बिक रहा है और हैं सब घर खुले
उस को पा कर भी हमेशा जुस्तजू उस की रही
क्या सबब है इस का शायद ये सरे-महशर खुले
जब तलक है बंद मुट्ठी सैकड़ों इम्कान हैं
क्या ख़बर राहत का रस्ता, सब्र का सागर खुले
क़ैद में कब तक कटेंगे ज़िन्दगी के रात दिन
गर सुने मुंसिफ़ कोई तो अपना भी महज़र खुले
३० मई २०११ |