सेल
लगी है सेल
देश का महानायक
अपने अंदाज़ेबयाँ से
बेच रहा है
राख
सुरमे के भाव
और पीतल को
सोने के भाव
सम्मोहित हम और आप
लपक-लपक कर
एक के ऊपर एक चढ़ते–ठेलते
ख़रीद रहे हैं
वही राख वही पीतल
बाज़ार का भगवान
दुनिया मुट्ठी में करने के नाम पर
पकड़ा रहा है
हरेक हाथ में खिलौना–
लो कल्लो बात
इंडीपॉप की भरमार ने
कबीर के भजनों की कैसेट को
ड्राअर में
धकेल दिया है पीछे
साहित्य के दंगल में
हास्य ने व्यंग्य को
मारा है घोड़ा-पछाड़
वाह वाह के
मंत्रमुग्ध ठहाके
गूँज रहे हैं
कविता के नाम से
हा हा हा
हमें अपनी भाषा बोलते हुए
आने लगी है शर्म
जैसे चीफ़ की दावत में
माँ को कर दिया गया हो
बगल की कोठरी में बंद
और हिदायत हो उसे कि
जब तक हमारे ठहाके चलते रहें
नहीं निकलना है कोठरी से बाहर
मेले की इस लकदक के बीच
मदारी ने छोड़ दिए हैं
अनगिनत जेबकतरे
कि वे जब चाहें आएँ
और आपकी जेबें ऐसे तराशें
कि आप
जेब कटवाने पर
मुग्ध होते रहें।
और घर जाकर बताएँ
अपने पड़ोसियों को
रिश्तेदारों को
गर्व से
कुछ इस तरह कि वे अफ़सोस करें
कि जेब कटवाने में
आख़िर वे कैसे रह गए
आपसे पीछे
और पूछने लगें –
बताइए ना
कहाँ लगी है
सेल?
१६ जुलाई २००७
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