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दावानल सोया है कोई
दावानल सोया है कोई, जहां एक चिंगारी में
ठीक वहीं पर हवा व्यस्त है, तूफां की तैयारी में
सागर के भीतर की लहरें, अक्सर बतला देती हैं
कुंठा का रस्ता खुलता है, हिंसा की ओसारी में
जब से महानगर में आया, आकर ऐसा उलझा मैं
भूल गया हूं घर ही अपना, घर की ज़िम्मेदारी में
वो लौटी है सूखी आंखें, तारतार दामन लेकर
जाने उसने क्या देखा था, सपनों के व्यापारी में
अपने छोटे होते कपड़े बच्चों को पहनाऊं मैं
तह करके रक्खे जो मैंने आंखों की अलमारी में
तेरहवीं के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी
किसने कितने खर्च किए हैं अम्मा की बीमारी में
इससे बेहतर काम नहीं है इस अकाल के मौसम में
आओ मिलकर खुश्बू खोजें कांटों वाली क्यारी में
१३ अप्रैल २००९ |