प्रश्नोत्तर चलते रहे
प्रश्नोत्तर चलते रहे जीवन में चिरकाल
विक्रम मेरी ज़िंदगी वक्त बना बेताल
जाने कैसी चाह ये जाने कैसी खोज
एक छाँव की आस में चलूँ धूप में रोज़
खाली माचिस जोड़कर एक बनाऊँ रेल
बच्चे-सा हर रोज़ मैं इसको रहा धकेल
संशय के सुनसान में जला कर दीप
दुख की आहट रात भर सुनता रहा 'समीप'
जो जैसा जब भी मिला लिया उसी को संग
यारो मेरे प्यार का पानी जैसा रंग
पानी ही पानी रहा जिनके चारों ओर
प्यास-प्यास चिल्ला रहे वही लोग पुरज़ोर
क्यों रे दुखिया क्या तुझे इतनी नहीं तमीज़
मुखिया के घर आ गया पहने नई कमीज़
एक जाए तो दूसरी मुश्किल आए तुरंत
ख़त्म नहीं होता यहाँ इस कतार का अंत
पुलिस पकड़कर ले गई सिर्फ़ उसी को साथ
आग बुझाने में जले जिसके दोनों हाथ
मरने पर उस व्यक्ति के बस्ती करे विलाप
पेड़ गिरा तब हो सकी ऊँचाई की नाप
आएगी माँ आएगी यों मत हो मायूस
तू बस थोड़ी देर तो और अंगूठा चूस
कैसे तय कर पाएगा वो राहें दुश्वार
लिए सफ़र के वास्ते जिसने पाँव उधार
फिर निराश मन मैं जगी नवजीवन की आस
चिड़िया रोशनदान पर फिर से लाई घास
२५ फ़रवरी २००८
|