धीरज
धीरज
अब जिहाद पर उतारू है
पसरा है अकाल
मगर सरपंच की ज़मीन पर
चल रहा है पंपसेट
लहलहा रहे हैं खेत
कर्ज़ में डूबा किसान
आत्महत्या के विचार को
झटक रहा है बार-बार
छोटे सरकार
(याने सरपंच के बरखुरदार)
भेजकर हवलदार
बुलवाते हैं हवेली में
किसनवा की लाड़ली
रात भर के लिए
और उसके मना करने पर
चला देते हैं मस्ती में
उसकी कनपटी पर पिस्तौल
पटाक्
सरपंच और सेठ
मिलीभगत से
बना रहे हैं
गाँव की विकास योजनाएँ
सड़कें पुल तालाब कुएँ
सरकारी अफ़सर
दलालों की तरह
खोज रहे हैं इनमें
सेंध मारने के लिए
कमज़ोर हिस्से
दूर खेत की मेड़ पर
बैठे हैं
गाँव के छोकरे
असहमति की भट्टी में
ढाल रहे हैं पिस्तौलें और चाकू
बना रहे हैं
आक्रोश के हथगोले
भर रहे हैं उनमें
विद्रोह की जिलेटिनें
गाँव के बड़े-बूढ़े
अपनी
काँपती हथेलियों के बीच
बचा रहे हैं
नन्हें दीये को जैसे–तैसे
शातिर हवा से
और गाँव की औरतें
अपनी देह की ताप से
सेंक रही हैं
नई उम्मीदों के लिए रोटियाँ
छोरियाँ गा रही हैं
मुक्ति के गीत
एक बड़ी लड़ाई के लिए
कसमसा रहा है
गाँव का धीरज
१६ जुलाई २००७ |