आएगी माँ आएगी
आएगी माँ आएगी, यों मत हो मायूस
तू बस छोड़ी देर तो, और अंगूठा चूस
इस बाजारू वक्त का ऐसा निर्मम खेल
खूब ठठाकर हँस रहा नीचे मुझे धकेल
कैसे तय कर पाएगा, वो राहें दुश्वार
लिए सफ़र के वास्ते, जिसने पाँव उधार
संशय के सुन सान में, जला-जलाकर दीप
दुख की आहट रात भर, सुनता रहा 'समीप'
जाने कैसी चाह थी, जाने कैसी खोज
एक छाँव की आस में, चलूँ धूप में रोज
खाली माचिस जोड़कर, एक बनाई रेल
बच्चे-सा हर रोज मैं, उसको रहा धकेल
फिसल हाथ से क्या गिरी, संबंधों की प्लेट
पूरी उम्र 'समीप' जी, किरचें रहे समेट
बिना रफू के ठीक थी शायद फटी कमीज़
बाद रफू के हो गई ये दो-रंगी चीज़
स्लीपर फिसलें पाँव में, नीचे चिपके कीच
ताल-मेल बैठा रहा, मैं दोनों के बीच
क्यों रे दुखिया क्या तुझे, इतनी नहीं तमीज
मुखिया के घर आ गया, पहने नई कमीज
तेज आँच थी या कहीं, बर्तन में थी खोट
यों ही तो करता नहीं, कोई कुकर विस्फोट
मरने पर उस व्यक्ति के, बस्ती करे विलाप
पेड़ गिरा तब हो सकी, ऊँचाई की नाप
केवल दुख सहते रहें, यही नहीं है कार्य
अपने दुख को शब्द भी, देना है अनिवार्य
फिर निराश मन में जगी, नवजीवन की आस
चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लाई घास
इतना ही मालूम है, इस जीवन का सार
बन्द कभी होते नहीं, उम्मीदां के द्वार
भूख, गरीबी, बेबसी, और दमन से मुक्त
चलो बनायें जिन्दगी, जीने के उपयुक्त
तू भी यदि चंचल हवा, हो जाएगी मौन
फिर खुशबू के सफ़र पर, साथ चलेगा कौन?
१५ मार्च २०१० |