हाइकु
सृजन-क्षण
चाक पे रक्खे
गीली मिट्टी, सोचूँ मैं
गढूँ आज क्या
दुख बहुरूपिया
नये स्वाँग में
दुख बहुरूपिया
रोज आ जाए
प्रार्थना
हे प्रभु आज
मेरे घर फाँके हैं
कोई न आए
दोहरा व्यक्तित्व
झूठी हँसी से
उसके चेहरे की
खुली तुर्पन
स्त्रीमन
भरा गोदाम
प्रश्नों की बोरियों के
रद्दे जहाँ हैं
आखिर क्यों
छटपटाए
दर्द के पिंजरे में
आज भी स्त्री
थैले में हिमालय
गर्मी में छोटू
बस में बेच रहा
पानी-पाऊच
विडम्बना
अदालत में
सत्य व असत्य
कठपुतली
फारेन जाब
रोज हो रहे
हमारी खदानों के
हीरे निर्यात
पतन
संस्कृति का
पिंडदान करता
ये वर्तमान
१९ अक्तूबर २००९ |