सगुन पाखी लौट
आओ
एक सन्नाटा यहाँ
वातावरण में गूँजता है
जून का पारा हमें बैगन
सरीखा भूँजता है
सूखती संवेदना की झील
तुम आकर बचाओ
सगुन पाखी लौट आओ
आदमी हँसकर नदी की
लाज खुलकर लूट लेता
बेचकर जल जीव जंगल
धन असीमित कूट लेता
यह व्यथा तो है हमारी
तुम कथा अपनी सुनाओ
सगुन पाखी लौट आओ
हाल है ऐसा कि अब
हँसता नहीं है सर्वहारा
सोचता हूँ मैं तुम्हें
किस डाल पर दूँगा सहारा
ठीक ही होगा
अगर तुम लौट पाओ
सगुन पाखी लौट आओ
१ सितंबर २०१८
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