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एक तू ही
एक तू ही भर नहीं अनिकेत
मैं नदी थी, रह गई हूँ
एक मुट्ठी रेत
गाल मेरे चूमते थे
पांखियों के दल
मुग्ध होती थी स्वयं की
सुन सजल कलकल
अब सिमटकर रह गई हूं
आह भर समवेत
पेंग भरते घाट पर आ
शावकों के झुंड
अब नहीं हैं पास में सूखे
हुए दो कुंड
कूदते हैं वक्ष पर मेरे
धमाधम प्रेत
एक पन्ना अथ रहा तो
एक इति इतिहास
मैं बुझाना चाहती अब
भी सदी की प्यास
ईख तो मैं हूँ नही!
ओ रे सचेतक! चेत
१ जुलाई २०१८
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